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काबुल पर कब्जे के साथ ही तालिबान का हो गया है अफगानिस्तान

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काबुल (लाइवभारत24)। अमेरिकी सैनिकों की वापसी से दो हफ्ते पहले ही तालिबान ने आगे बढ़कर रविवार को राजधानी काबुल पर कब्जा जमा लिया। 1 मई से अमेरिकी सैनिकों की वापसी शुरू हुई और उसके बाद से तालिबान भी सक्रिय हो गया। उसने एक-एक कर बड़े शहरों को अपने कब्जे में किया और काबुल पर कब्जे के साथ पूरे देश को अपने काबू में कर लिया। अमेरिका और उसके मित्र देशों ने अफगानिस्तान में सेना खड़ी की थी। करोड़ों डॉलर खर्च कर सैनिक साजो-सामान से उन्हें लैस किया था। सब बेकार हो गया।
तालिबान एक उग्रवादी समूह है। इसने ही 1990 के दशक के आखिर में देश पर शासन किया था। अफगानिस्तान में अब वह दोबारा बड़ी ताकत बनकर उभरा है और उसने देश पर काबू कर लिया है।

2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में हमले किए। उग्रवादियों को सत्ता से बेदखल किया। इसके बाद अमेरिकी सैनिक लौटे नहीं। दो दशक तक वहीं पर लड़ते रहे। जैसे ही अमेरिका और उसके सहयोगी नाटो सैनिकों ने काबुल छोड़ने की तैयारी की, पश्चिमी देशों के समर्थन से 20 साल से चल रही सरकार ढह गई। अब अफगान लोगों को अपने भविष्य को लेकर खतरा दिख रहा है। वे एयरपोर्ट की ओर दौड़ लगा रहे हैं। उन्हें देश से बाहर निकलने का यही आखिरी रास्ता दिख रहा है।
अफगान लोगों को चिंता इस बात की है कि तालिबान के हाथ में सत्ता आते ही फिर अफरा-तफरी का माहौल होगा। अमेरिका और उसके समर्थन वाली अफगान सरकार में काम करने वाले लोगों से बदला लिया जाएगा।

कई लोगों को डर है कि तालिबान कड़े इस्लामिक कानून लागू करेगा। ऐसे ही कानून उसने 1996 से 2001 के बीच अपने शासन में लागू किए थे। बच्चियों के स्कूल जाने या महिलाओं के बाहर काम करने पर पाबंदी लगा दी थी। बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया था। महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए भी पुरुष रिश्तेदार को साथ रखना होता था। तालिबान ने म्यूजिक पर बैन लगा दिया था। चोरों के हाथ काट दिए जाते थे। बेवफाई करने पर पत्थर मारे जाते थे। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में तालिबान ने मॉडरेट चेहरा दिखाया है। यह भी कहा है कि वह बदला नहीं लेगा। इसके बाद भी अफगान लोगों को तालिबान पर भरोसा नहीं है। एक बड़ी वजह यह है कि अमेरिकी सैनिक इस महीने यानी अगस्त के आखिर तक अफगानिस्तान छोड़ देंगे। अमेरिकी सैनिकों की वापसी मई में शुरू हुई थी।

अमेरिका ने 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकी हमलों के खिलाफ वॉर ऑन टेरर शुरू किया था। हमले के लिए जिम्मेदार अल-कायदा पर तालिबान ने कार्रवाई नहीं की। और तो और, उसे बचा रखा था। इससे भड़के अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला बोल दिया था। कुछ ही महीनों में तालिबान के लड़ाकों को देश से खदेड़ दिया था। इसके बाद अमेरिका के लिए लगातार युद्ध लड़ना और देश का पुनर्निर्माण करना बेहद मुश्किल साबित हुआ।

जब अमेरिका का फोकस इराक पर शिफ्ट हुआ तो तालिबान फिर खड़ा हो गया। पिछले कुछ वर्षों में उसने अफगानिस्तान के कई इलाकों पर कब्जा जमा लिया था।

पिछले साल प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी की घोषणा की थी। तालिबान से डील भी की थी। इसमें तालिबान के खिलाफ सीमित मिलिट्री कार्रवाई पर सहमति बनी थी। इसके बाद प्रेसिडेंट बने जो बाइडेन ने अगस्त के आखिर तक अमेरिकी सैनिकों के लौटने का ऐलान किया था।

यह तारीख करीब आ रही है। इसी वजह से तालिबान ने हमले तेज किए और तेजी से आगे बढ़ा। रविवार को उसने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
इसका संक्षेप में जवाब है- भ्रष्टाचार। तभी तो 70-80 हजार लड़ाकों वाला तालिबान 3 लाख सैनिकों की अफगानिस्तान सेना पर भारी पड़ा।

अमेरिका और नाटो सहयोगियों ने दो दशक में अरबों डॉलर खर्च किए ताकि अफगान सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग दी जा सके। उन्हें अत्याधुनिक हथियार दिए जा सकें। इसके बाद भी पश्चिमी देशों के समर्थन से बनी सरकार ने बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार किया। कमांडरों ने विदेशी पैसे का फायदा उठाया और सैनिकों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई। मैदानी सिपाही हथियारों, गोला-बारूद और यहां तक कि खाने के लिए भी तरसते रहे।

जब अमेरिका ने सैनिकों को वापस बुलाने के प्लान पर अमल शुरू किया तो अफगानिस्तानी सेना का हौसला पस्त हो गया। तालिबान के आगे बढ़ते ही अफगान सैनिक समर्पण करते चले गए। काबुल जैसे बड़े शहर तो बिना संघर्ष के ही तालिबान ने हथिया लिए।

वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस के बाहर अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। लोगों की मांग है कि पाकिस्तान को आतंकवाद को बढ़ावा देने से रोका जाए।
वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस के बाहर अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। लोगों की मांग है कि पाकिस्तान को आतंकवाद को बढ़ावा देने से रोका जाए।
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति का क्या हुआ?

वह तो भाग गए। प्रेसिडेंट अशरफ गनी ने सबसे पहले अफगानिस्तान छोड़ा। रविवार को तालिबान काबुल पहुंचा तो गनी वहां से भाग निकले। उन्होंने कहा कि खूनखराबा नहीं चाहते, इस वजह से जा रहे हैं। यह साफ नहीं है कि वे कहां गए हैं।

1975 में उत्तरी वियतनाम की सेना ने सैगॉन जीता था। इसके बाद ही वियतनाम युद्ध खत्म हुआ था। तब से अमेरिका की हार का प्रतीक सैगॉन ही बना था। उस समय अमेरिकियों और वियतनामी समर्थकों को हेलिकॉप्टर से एयरलिफ्ट किया गया था। हालांकि, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिन्केन ने सैगॉन की अफगानिस्तान से तुलना को सिरे से खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा- यह सैगॉन नहीं है।
कुछ भी साफ नहीं है। तालिबान का कहना है- हम अन्य धड़ों के साथ मिलकर ‘इन्क्लूसिव इस्लामिक सरकार’ बनाएंगे। इसके लिए हम पुरानी सरकार के नेताओं समेत देश के वरिष्ठ नेताओं से राय-मशविरा कर रहे हैं।

तालिबान ने इस्लामिक कानून को लागू करने की बात कही है। यह भी कहा है कि कई दशकों के युद्ध के बाद वह सामान्य जनजीवन के लौटने के लिए सुरक्षित माहौल प्रदान करेगा। हालांकि, अफगान लोगों को तालिबान पर भरोसा नहीं है। उन्हें डर है कि तालिबान का शासन हिंसक और दमनकारी होगा। तालिबान अफगानिस्तान का नाम बदलकर इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान करना चाहता है। यह भी लोगों को डरा रहा है। इसी नाम से पिछली बार तालिबान ने शासन किया था।
तालिबान का टेकओवर महिलाओं के लिए क्या मायने रखता है?

कई महिलाओं को डर है कि उनके अधिकार छीन लिए जाएंगे। तालिबान के सत्ता से बेदखल होने के बाद अफगान महिलाओं ने कई अधिकार हासिल किए थे। उन्हें डर है कि फिर से उन्हें घरों में बंद कर दिया जाएगा। तालिबान ने कहा है कि वह स्कूलों में महिलाओं के जाने के खिलाफ नहीं है। तालिबान ने तो ये भी कहा है कि वह सरकार में महिलाओं को भी शामिल करेगा। इसके बाद भी महिलाओं के अधिकारों पर पॉलिसी साफ नहीं है। अफगानिस्तान शुरुआत से एक कंजर्वेटिव देश रहा है। बड़े शहरों के बाहर महिलाओं का स्तर बेहद खराब रहा है, खासकर तालिबानी शासन में।
हर विशेषज्ञ यही संदेह जता रहा है। अमेरिकी सैन्य अधिकारियों को भी इसी बात की चिंता है। पिछले साल तालिबान ने अमेरिका के साथ पीस डील पर साइन किया था। इसमें तालिबान ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का संकल्प लिया था। यह भी कहा था कि आतंकी हमलों के लिए अफगानिस्तान को बेस नहीं बनने देगा। इस डील को लागू करवाना अमेरिका के लिए आसान नहीं रहेगा।

पिछले 20 साल में टेक्नोलॉजी में हुई प्रगति ने अमेरिका को यमन और सोमालिया जैसे देशों में संदिग्ध आतंकियों को निशाना बनाने में मदद की है। इन जगहों पर अमेरिका की सेना का स्थाई ठिकाना नहीं रहा है। तालिबान ने 11 सितंबर के हमलों के लिए भारी-भरकम हर्जाना चुकाया है। वह अपने शासन को मजबूती देने की कोशिश करेगा तो अपनी गलतियों को दोहराने से भी बचेगा।

इसी साल की शुरुआत में पेंटागन के टॉप लीडर्स ने कहा था कि अल-कायदा जैसे कट्टरपंथी ग्रुप फिर से पनप सकते हैं। इस समय लग रहा है कि ऐसे ग्रुप उम्मीद से भी तेजी से बढ़ सकते हैं।

अफगानिस्तान इस्लामिक स्टेट से जुड़े ग्रुप्स का भी घर रहा है। इसने हालिया वर्षों में शिया अल्पसंख्यक समुदाय पर हमले तेज किए हैं। तालिबान ने इन हमलों की निंदा की है। दो ग्रुप्स आपस में इलाके पर कब्जे को लेकर लड़ते रहे हैं। यह देखना है कि तालिबान सरकार इस्लामिक स्टेट को दबाने की नीति लागू कर पाती है या नहीं।

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