तुम स्वयं पिता की लाठी थे,
फिर क्यों तुम खुद को तोड़ चले।
तुम अपने घर की रौनक थे ,
तुम क्यों यह दुनिया छोड़ चले।
तुम सबको पाठ पढ़ाते थे,
हिम्मत का और सच्चाई का।
फिर क्यों तुम हार गए खुद से ,
और चुना रास्ता खांई का।
तुम अपना हंसता चेहरा ले ,
जिस ओर निकल कर जाते थे ।
ना जाने कितने दिल मुट्ठी में,
वापस लेकर आते थे ।
तुमने जो चाहा वह पाया,
अपना जीवन भरपूर जिया।
फिर क्यों यह कदम उठा कर के ,
उस वृद्ध पिता को चूर किया ।
एक बार तो कुछ सोचा होता,
उसके सपनों का क्या होगा ।
कितना कठोर कर हृदय,
पिता ने पुत्र का दाह किया होगा।
फिर कैसे व्यथित हृदय लेकर,
रातों में वह बिलखा होगा ।
उन जर्जर बूढ़ी आंखों को,
चश्में से भी ना अब दिखता होगा।
कब तक तन में सांसे लेकर ,
वह इस दुनिया में भटकेंगे।
अंबर के तारे देखेंगे जब,
तो प्राण तुम्हीं में अटकेंगे।

ललिता पाण्डेय, लखनऊ

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